कृपया नापतोल.कॉम से कोई सामान न खरीदें।

मैंने Napptol.com को Order number- 5642977
order date- 23-12-1012 को xelectron resistive SIM calling tablet WS777 का आर्डर किया था। जिसकी डिलीवरी मुझे Delivery date- 11-01-2013 को प्राप्त हुई। इस टैब-पी.सी में मुझे निम्न कमियाँ मिली-
1- Camera is not working.
2- U-Tube is not working.
3- Skype is not working.
4- Google Map is not working.
5- Navigation is not working.
6- in this product found only one camera. Back side camera is not in this product. but product advertisement says this product has 2 cameras.
7- Wi-Fi singals quality is very poor.
8- The battery charger of this product (xelectron resistive SIM calling tablet WS777) has stopped work dated 12-01-2013 3p.m. 9- So this product is useless to me.
10- Napptol.com cheating me.
विनीत जी!!
आपने मेरी शिकायत पर करोई ध्यान नहीं दिया!
नापतोल के विश्वास पर मैंने यह टैबलेट पी.सी. आपके चैनल से खरीदा था!
मैंने इस पर एक आलेख अपने ब्लॉग "धरा के रंग" पर लगाया था!

"नापतोलडॉटकॉम से कोई सामान न खरीदें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

जिस पर मुझे कई कमेंट मिले हैं, जिनमें से एक यह भी है-
Sriprakash Dimri – (January 22, 2013 at 5:39 PM)

शास्त्री जी हमने भी धर्मपत्नी जी के चेतावनी देने के बाद भी
नापतोल डाट काम से कार के लिए वैक्यूम क्लीनर ऑनलाइन शापिंग से खरीदा ...
जो की कभी भी नहीं चला ....ईमेल से इनके फोरम में शिकायत करना के बाद भी कोई परिणाम नहीं निकला ..
.हंसी का पात्र बना ..अर्थ हानि के बाद भी आधुनिक नहीं आलसी कहलाया .....
--
मान्यवर,
मैंने आपको चेतावनी दी थी कि यदि आप 15 दिनों के भीतर मेरा प्रोड्कट नहीं बदलेंगे तो मैं
अपने सभी 21 ब्लॉग्स पर आपका पर्दाफास करूँगा।
यह अवधि 26 जनवरी 2013 को समाप्त हो रही है।
अतः 27 जनवरी को मैं अपने सभी ब्लॉगों और अपनी फेसबुक, ट्वीटर, यू-ट्यूब, ऑरकुट पर
आपके घटिया समान बेचने
और भारत की भोली-भाली जनता को ठगने का विज्ञापन प्रकाशित करूँगा।
जिसके जिम्मेदार आप स्वयं होंगे।
इत्तला जानें।

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Friday 31 August 2012

मै लिखता हूँ

             प्यारे बंधुओ!........धरती पर शायद ही कोई ऐसा इन्सान होगा,......जिसे दुःख न हो!.....जिसकी जिन्दगी में परेशानिया न हो!......तकलीफें न हो!......लेकिन इंसान को धरती का सबसे बुद्धिजीवी प्राणी यूं ही नहीं कहा गया है!......इंसान पानी की तरह बहते हुए अपने आगे बढ़ने का रास्ता ढूंढ ही लेता है! हजारो गम और समस्याओ पर हावी होने वाला कोई एक तरीका तो इंसान ढूंढ ही लेता है,.....जिसमे खोकर वो अपने सारे गम और मुश्किलें भूल जाता है!.....उसकी सैलाब जैसी जिन्दगी में एक संतोषजनक ठहराव आ जाता है!.................मेरी सागर जैसी जिन्दगी की नौका में भी एक ऐसा पतवार है, जो मुझे अपने हर गम से दूर ले जाता है,......मुश्किलों से लड़ने के लिए एक नयी उर्जा देता है!.........और वो पतवार है- 'मेरी लेखन कला'!........जिन्दगी के हर जंग में मेरे रथ का सारथी!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
           अब जब मै अपने लेखन कला की बात कर ही रहा हूँ, तो ये कहना किसी अतिशयोक्ति से कम नहीं होगा, लेकिन फिर भी कहूँगा की मैंने लिखना तब शुरू किया जब आमतौर पे बच्चे सही ढंग से शब्दों को लिखना सीख रहे होते है!.........और ये शत- प्रतिशत सत्य है!........आइये!....मै आपको अपने जिन्दगी के उन मासूम लम्हों में ले जाता हूँ,........जहाँ मैंने दूसरे बच्चो की तुलना में खेल-कूद, हंसी- ठिठोली और बचपन की शरारतो की जगह कलम को अपना हमराज बनाया!
       बात उन दिनों की है जब मै 'दूसरी- कक्षा' में पढता था!.......उन दिनों आज की तरह अनगिनत मनोरंजन के साधन नहीं हुआ करते थे. ले- दे कर वही दूरदर्शन के कई सारे धारावाहिक!......और या फिर स्कूल का मैदान!....रविवार को छुट्टी का दिन हर बच्चे के लिए खुशियों का सौगात लाता था!.....सुबह से ही टीवी पर लोकप्रिय कार्यक्रम  'रंगोली', 'श्रीकृष्णा', 'कॅप्टन व्योम', 'विराट', 'बच के रहना रे', साका- लाका बूम- बूम', 'शक्तिमान' और 'आर्यमान' जैसे धारावाहिक से पूरा रविवार यादगार बन जाता था!.....पर गाँव तो आखिर गाँव ही था!...बिजली की समस्या की वजह से कभी- कभी हम इस सुख से भी वंचित रह जाते थे!........लेकिन उन दिनों एक और ऐसी चीज थी, जो न सिर्फ बच्चो, बल्कि बड़ो को भी खूब लुभाती थी!......और वो चीज थी- 'कॉमिक्स'!
           जी हाँ!........कॉमिक्स ही वो चीज थी, जिसने मेरे अन्दर के लेखक को जगाया था!....उन दिनों कॉमिक्स का प्रचलन सर चढ़ कर बोलता था!.....किसी और का तो पता नहीं, पर मै तो कॉमिक्स का दीवाना था!....लेकिन बचपन के उन दिनों में पढाई के दबाव में घर के बड़े इसकी इजाजत नहीं दिया करते थे!....कभी- कभी मामा जी के घर जाने पर कई कॉमिक्स पढने को मिल जाता था!..और वो लम्हा जिन्दगी का सबसे बेहतरीन लम्हा बन जाता था!......खैर!.....मै स्कूल के दिनों की बात कर रहा था!....कुछ एकाध दोस्तों को छोड़कर, मेरे बिलकुल अलग ही स्वाभाव और सादेपन के कारण मेरी सहपाठियों से थोड़ी कम बनती थी!.......उन्ही सहपाठियों में से एक लड़का स्कूल में हमेशा कॉमिक्स लाता था!......उसके घर में कॉमिक्स की भरमार थी!......वो अपने दोस्तों की गुट बनाकर खाली समय में कॉमिक्स पढता था ......और मुझे ललचाया करता था!....लालसावश मै उनके पास जाता तो बचपने में आकर वो मुझे भगा देते थे!......ऐसा लगभग रोज ही होता था!.......एक दिन जब रोज की तरह उन लडको ने मुझे तिरस्कृत किया तो मैंने भी आवेश में आकर यूं ही कह डाला- ''मुझे जरूरत नहीं है तुम्हारे इस कॉमिक्स की!......मै इससे भी अच्छा कहानी लिख सकता हूँ!''..........उन लडको ने मेरा खूब मजाक उड़ाया!......लेकिन आवेश में कही हुई वो बात मेरी नन्ही-सी जान पर गहरा असर छोड़ गई!.....मेरे मन में लिखने की जिज्ञासा जाग गई!....उन दिनों पढ़े हुए कॉमिक्स, टीवी पर आ रहे लोकप्रिय रहस्यमयी धारावाहिकों और उस उम्र में मेरे ज्ञान के हिसाब से मैंने कुछ ही दिनों में 'शमशान का भूत', 'छिपा कमरा', 'सावधान!..मौत आ रही है', 'कलाई पट्टी और डकूरा की मौत', 'भूतिया हवेली', 'चार आत्माए', 'मुह्हल्ले के चोर' और दर्जनों रहस्यमयी कहानिया लिख डाली!......इनकी चर्चाये जब दोस्तों में होने लगी तो मै फेमश होने लगा!.....मजाक उड़ने वाले दोस्त, मेरे करीब आने लगे और मै सबका चहेता बन गया!.......इन कहानियो से मिली बचपन में उस सम्मान ने मुझे आगे और लिखने की प्रेरणा दी!.......उम्र के साथ- साथ कक्षाए भी बढती रही और मेरा ज्ञान भी बढ़ता रहा!.....और धीरे- धीरे हिंदी साहित्य में मेरी रूचि भी बढती गयी!.......और तब मैंने कुछ साहित्यिक कहानियो का भी संग्रह बना डाला, जिसे मैंने 'कथा- वृक्ष' नाम दिया!.....इसमें 'सपना या सच्चाई', 'टिन का बर्तन', 'अईवागा', 'रात्रि-सम्मलेन', 'सिक्के की आत्मकथा', 'सोने की चिड़िया', 'बसंत की वो एक रात' और कुछ अन्य साहित्यिक कहानिया भी थी!......इसके अलावा रहस्यों से मेरे लगाव को ध्यान में रखते हुए मैंने 'पिटारा' नाम का एक और संग्रह बनाया!....जिसमे मैंने जाने कितने ही रोमांचक कहानियाँ लिखी!....
          सातवी- आठवी कक्षा तक पहुचने पर मेरी बड़ी बहन ने मुझे उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित किया!.....उन्होंने मुझे उपन्यास के बारे में कई जानकरिया भी दी!....और तब मैंने अगले तीन- चार सालो में 'कंटक- मणि' और 'मिशन- ब्लास्ट' नाम की दो सनसनीखेज उपन्यास लिख डाली!....और तब तक मै अपने घर वालो, दोस्तों, स्कूल, गाँव, जान- पहचान वालो और रिश्तेदारों में लेखक के रूप में मशहूर हो गया!.........बारहवी पास करने के बाद मार्केटिंग मैनेजमेंट की तैयारी के लिए मै पटना जा रहा था!....उस यात्रा में मेरा एक ब्रीफकेस चोरी हो गया!....उस ब्रीफकेस में मेरे कपड़ो, कुछ जरूरी चीजो के अलावा मेरी अब तक की सारी रचनाये भी खो गयी!.....उसे ढूंढवाने की मैंने बहुत कोशिश की पर वो नहीं मिल सका!............
           जिन्दगी की तेज रफ़्तार!.....और देखते ही देखते मै आज अपनी उसी लेखन- कला को अपनी पहचान बना चूका हूँ!.......लेकिन अभी बहुत छोटे स्तर पर!......मुझे अपनी कहानियो के बल पर फिल्म- उद्योग में एक नया मोड़ लाना है!......जिसकी मै दिन- रात कोशिश में लगा हूँ!.........
           अपने बचपन के उन लम्हों से लेकर आज तक मैंने जाने क्या नहीं खोया!.......लेकिन मुझे फक्र है की ''मै लिखता हूँ''..........और जिन्दगी जब तक साथ देगी लिखता रहूँगा!........और तब तक ही चलता रहेगा ........''मेरा संघर्ष''........................

Thursday 23 August 2012

हार मत मानो

जैसा की जीवन में कंही- कभी, 
कुछ घटनाएं घट जाती है.
अपने ऊपर बादल बनकर,
कुछ विपदाएं घिर आती है.

पथ जीवन की अकस्मात ही,
कठिन चढ़ाई बन जाती है.
जब हर अगले कल की चिंता,
हमको दिन रात सताती है.

असफलता पे असफलता ही,
जब हमको मिलती जाती है.
अपनी ही तकदीर हमारा, 
जब खिल्ली खूब उड़ाती है.

चलती हुई हवाएं भी अपना ,
जब रुख मोड़ने लगते है.
अपनों से बढ़कर अपने भी,
जब साथ छोड़ने लगते है.

हर स्वप्न बिखरने लगते है,
हर आस टूटने लगती है.
फिर साँसों के साथ हमारी,
आह छूटने लगती है.

जब खर्चे बढ़ने लगे अधिक,
और आय बहुत हो जाए कम.
तब थोडा- सा रूक जाना, 
पर हार कभी न मनो तुम.

खोकर सब कुछ खुद पर यूं ही,
बैठ कभी न रोना तुम.
फिर सब कुछ वापस पाने की,
उम्मीद कभी न खोना तुम.

उम्मीदे ही तो जीवन में,
फिर दृढ-विश्वास जगाती है.
फिर से स्थापित होने की,
हिम्मत को पास बुलाती है.

हिम्मत की नैय्या से भंवर भरी,
जब ये नदी पार कर जाओगे.
अपने सपनो के शीशमहल का
नव- निर्माण कर जाओगे....

अच्छे और बुरे मित्रों की,
फिर शक्ल आज पहचानो तुम.
परखना सीख लिया तुमने,
तो!.....हार कभी न मानो तुम!!

Friday 17 August 2012

बाप और बेटा

आज फिर कुछ ऐसा हुआ, जो सदियों से कुदरत का दस्तूर रहा है,
बेटा खिल कर फूल बन गया और बाप मुरझा कर घूर रहा है!!

जो कल खेल रहा था बचपन की गलियों में, आज वो बन चूका बड़ा है,
और जो डूबा था जिम्मेदारी की जवानी में, वो बुढ़ापा बनकर खड़ा है!!

आज खड़े है दोनों आमने- सामने, ये भूलकर की अब तक कैसे जिए,
बेटा अपनी आँखों में जिज्ञासा, और बाप जुबाँ पर कुछ प्रश्न लिए!!

कुछ देर यूं ही खड़े थे दोनों, एक दुसरे को ताकते हुए,
ख़ामोशी से बोल रहे थे, एक दुसरे के मन में झांकते हुए!!

फिर बाप की गहरी बूढी आँखों ने पुछा- 'बेटा!......इन आँखों से दुनिया और दुनियादारी खूब देखी!
अब बारी तेरी है, खुद देखने की और मुझे भी दिखाने की!....बोल!...क्या तू दिखाएगा?'
बेटा खामोश रहा....................

फिर बाप के खामोश कांपते होठो ने पुछा- 'बेटा!...अब इन होठो की क्षमता घट चुकी है!
अब बारी तेरी है, अपने लिए बोलने की और मेरे लिए भी!....बोल!...क्या तू बोलेगा?'
बेटा खामोश रहा....................

फिर बाप के झुके हुए कंधे ने पुछा- 'बेटा!....इन कंधो ने तब तक जिम्मेदारियों का बोझ उठाया, जब तक ये झुक नहीं गए!
पर अब बारी तेरी है, अपना बोझ उठाने की और मेरा भी!.....बोल!....क्या तू उठाएगा?
बेटा खामोश रहा....................

फिर बाप के थरथराते हाथो ने पुछा- 'इन हाथो ने तब तक कर्म किये, जब तक ये कमजोर नहीं हो गए!
पर अब बारी तेरी है, अपने लिए कर्म करने की और मेरे लिए भी!....बोल!...क्या तू करेगा?
बेटा खामोश रहा....................

फिर बाप के लड़खड़ाते कदमो ने पुछा- 'इन कदमो ने तब तक चलना नहीं छोड़ा,जब तक ये थक नहीं गए!
लडखडाये, गिरे, उठे, संभले और फिर चले!
पर अब बारी तेरी है, अपने लिए चलने की और मेरे लिए भी!....बोल!......क्या तू चलेगा?
बेटा खामोश रहा.....................

और अब बाप के स्याह पड़ चुके चेहरे ने पुछा- 'अब तक तू मुझसे उम्मीदे रखता था,पर अब मै थक चूका हूँ!
अब बारी तेरी है!...बोल!....क्या मै तुझसे उम्मीदे रख सकता हूँ, की तू जियेगा मेरे लिए भी, जब तक जिन्दा हूँ?
बेटा खामोश रहा......................

बेटा खामोश रहा!......क्योकि ये हर बेटे के लिए है!.........आपका जवाब क्या है?......ये आप पर निर्भर है!!!!!!!!!

Monday 13 August 2012

तुम ही तो मेरा प्रथम प्रेम हो


कभी मेरी तन्हाई को जिसने है तोडा,
कभी मेरे मन को है जिसने टटोला!
कभी शाम बनकर जो ख्वाबों में आये,
कभी चाँद बनकर है जिसने लुभाया!
जिन्दगी की हकीकत या चाहे मेरा वहम हो,
तुम ही तो मेरा प्रथम प्रेम हो!!!!!!!!!!!!!!

ये गुमनाम राते, ये तनहाइयाँ,
वो पिछली बातें, वो रूसवाइयां!
कभी हंस रहा हूँ, कभी आँख नम है,
कभी यादों की है वो परछाइयां!
खुली आँख से भी न कुछ भी दिखे,
और न ही रूकती है, अंगड़ाइयां!
न आये समझ में, न जाये जिगर से,.....उफ़!!!!!!!!
न जाने मेरी तुम कौन हो?
तुम ही तो मेरा प्रथम प्रेम हो!!!!!!!!!!!

मेरे जिस्मो-जाँ में, जमीं- आसमां में,
दिल की धाराओं पर बस अब तेरी किश्तियाँ!
बिन पाए गर तुमको न जी पा रहा,
डर है पा के न मर जाऊं मै!
फिर भी पुकारे ये दिल बार-बार,....आ जाओ!....
तुम बिन न जाए जिया!.......
मेरे हर पल में, मेरे आजकल में,
तुम्ही हो, तुम्ही हो, तुम्ही और तुम हो!
तुम ही तो मेरा प्रथम प्रेम हो!!!!!!!!!!!!!!!!  

Sunday 12 August 2012

वो एक भयानक रात


        जब प्रकृति का हृदयस्पर्शी कोलाहल, भयानक सन्नाटे का रूप ले ले.......जब संसार का विस्तृत प्रकाश अपने विश्रामगृह मे चला जाए, जब गहन अंधकार की असीमित चादर से पूरा दृश्यमान संसार ढक जाए,........उस भयावह प्राकृतिक दृश्य को ''रात'' कहते है!.............और यही रात जब किसी पर मुसीबत बनकर अचानक टूट पड़े तो,.............'अविस्मरणीय रात' बन जाती है!        ऐसी ही एक रात की कहानी, अपनी खुद की ज़ुबानी आपको सुनाता हू............बात साल २००८ की है, जब मैं मार्केटिंग मॅनेज्मेंट की ट्रैनिंग मे पटना [बिहार] मे था. जी हा!.......बिहार!........नाम सुनते ही मन मे एक बार भूकंप आ ही जाता है.     
        कंपनी के एक पुराने क्लाइंट से मिलने के लिए मुझे ''पुनपुन'' जिले मे जाना था......जिले का नाम सुनकर तो मेरी खूब हँसी छूटी, पर मुझे नही पता था की आने वाले आठ- दस घंटो मे यही हँसी मेरी मुसीबत बनने वाली है. तकरीबन दोपहर के १.०० बजे की पेसेनजर से मैं पटना से पुनपुन के लिए रवाना हुआ.....पेनसेंजर से पुनपुन पहुचने मे ५-६ घंटे लगते है. ५-६ घंटो के लिए मैं पुनपुन के नाम की रहस्यमयी हँसी मन मे दबाकर शांति से ट्रेन मे बैठा रहा.........आपको बता दूं की रहस्यमयी नॉवेल्स पढ़ने के अलावा ट्रेन का सफ़र भी मुझे जिंदगी का खूबसूरत लम्हा लगता है. ट्रेन से बिहार दर्शन का पूरा मज़ा लेते हुए मैं आख़िरकार पुनपुन पहुँच ही गया. ट्रेन से मुझे लेकर कुल ७-८ पेसेनजर ही उतरे......उस स्टेशन पर!.........ट्रेन के चले जाने के बाद मैं चारो ओर घूम- घूम कर देखा..........अत्यंत सुंदर और मनोरम दृश्य था पुनपुन का........... एक पुराना और खंडहर जैसा स्टेशन,......अत्यंत विशालकाय सर्प की तरह ज़मीन से गुज़री दो रेल की पटरियाँ और दोनो ओर तकरीबन २२-२५ मीटर लंबी कच्ची प्लेटफॉर्म, जिस पर कुछ- कुछ दूरी पर पत्थर की बेंच रखी हुई थी. स्टेशन के एक तरफ तकरीबन मीलो दूरी तक सिर्फ़ खेत ही खेत थे......धरती पूरी हरियाली से भरी थी. दृश्य की आख़िरी छोर पर सिर्फ़ अनगिनत पेड़ थे.........और दूसरी ओर घना जंगल!........मन को भा चूका था वह स्थान!.........फिर आखिर में प्लेटफोर्म के आखिरी छोर पर लगे बोर्ड पर पुनपुन लिखा हुआ पढ़कर मुझे हंसी आ गयी!.........जैसे कोई पुराने टेलीफिल्म का कोई सीन हो!...............फिर मैंने स्टेशन के पास वाले ढाबे में नाश्ता किया और ढाबे वाले से पटना जाने वाली आखिरी ट्रेन और गंतव्य का पता पूँछ कर मै उस गाँव की और चल दिया.........कुछ दूर चलने पर एक टेम्पो मिल गया. उसमे बैठे ग्रामीण मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे कोई अजूबा देख लिया हो!.......गांव की कच्ची  सड़के और वर्षो पुराना टेम्पो!.........पेट की हालत को एकदम ख़राब हो गई.......और गाँव पहुंचकर काम निबटाने में रात के ८.०० बज गए.......वापसी का कोई साधन भी नजर नहीं आ रहा था.........अब तक जो जगह मन को भा रहा था, वो मन को कचोटने लगा......पुनपुन के नाम की हंसी अब चिंता में बदलने लगी.......ऊपर से अमावस की रात!.....आधे घंटे तक कोई साधन न मिलने पर मै एकदम घबराने लगा.........क्योकि रात के १०.३० बजे की ट्रेन पटना जाने वाली आखिरी ट्रेन थी!......  अब तो धड़कने बढ़ने लगी थी!..........वहा से गुजरते एक बुजुर्ग से मैंने पुछा तो पता चला की ६ बजे के बाद सारे साधन बंद हो जाते है,....और हो भी क्यों न?.......बिहार जो ठहरा!....मैंने उन्हें अपनी समस्या बताई.......उन्होंने बताया की वे स्टेशन की और ही जा रहे है अपने खेत की ओर, और मुझे स्टेशन तक छोड़ने का प्रस्ताव दिया!.......सर पूरी तरह घूम गया!....उतनी दूर पैदल?.......लेकिन और कोई चारा भी नहीं था!........बिहार में ऐसे किसी आदमी पर भरोसा करना भी उचित नहीं माना जाता, लेकिन मेरे लिए करो या मरो वाली स्तिथि पैदा हो गयी थी!.........राम का नाम लेकर मै उनके साथ चुपचाप चल दिया!........उनके हाथ में टोर्च थी!.............और मुंह में कभी न रुकने वाली जुबान!..........रास्ते भर पतानही क्या- क्या भोजपुरी में बकते जा रहे थे!.......मै बस उनकी हाँ में हाँ मिलाये जा रहा था!
          रात भयानक रूप ले चुकी थी.....चारो ओर गहन अंधकार, झींगुरों की आवाजें, सियारों के रोने की आवाजें ............उफ़!.......आज भी दिल काँप उठता है मेरा!......उस आदमी की बक बक से थोड़ी सामान्यता बनी हुयी थी,.......पर दिल बैठा जा रहा था की कही ट्रेन मिस न हो जाये!..........कुछ ही देर में हमें कुछ आधे किलोमीटर दूर से आ रही रौशनी दिखी!...बुजुर्ग ने बताया की हम स्टेशन पहुँचने वाले है!...........मैंने रहत की सांस ली!........स्टेशन से थोड़ी दूरी बचने पर हमें एक ट्रेन की आवाज सुनाई दी!........मैं समझ गया की ये आखिरी ट्रेन थी......मेरा दिल एकदम-से बैठने लगा!..........हम दोनों स्टेशन की ओर भागे!..........कुछ ही देर में मै स्टेशन पहुंचा तो सही लेकिन ट्रेन स्टार्ट होकर स्पीड पकड़ चुकी थी!........और जब तक मै भागा ट्रेन प्लेटफोर्म छोड़ चुकी थी!........मै प्लेटफोर्म की आखिरी लाइट के खम्बे को पकड़ कर जमीन पर घुटनों के बल बैठ गया!......थकान से बुरी तरह से हांफ रहा था मै!......तकरीबन दो मिनट तक मै यूं ही बैठा हांफता रहा!........फिर खम्बे के सहारे उठा, और धीरे- धीरे एक बेंच पर हांफता हुआ बैठ गया!..........तभी अचानक मुझे उस बुजुर्ग का ख्याल आया, मै अचानक ही उठा और चारो ओर घूम कर देखा!........वो कही नहीं दिखा......मै घबराया पर उसे ढूंढना बेकार ही समझा!..........और महसूस किया की अब मेरे पास और कोई नहीं है!........जी हाँ!.......अमावस की रात, देवताओ का भी दिल दहलाने वाली भयानक रात,......चारो ओर अनगिनत झींगुरों की आवाजें,....सैकड़ो सियारों के रोने की आवाजे........और मै बिहार के उस स्टेशन पर अकेला!.......बिलकुल अकेला!........उजाला था तो बस उस स्टेशन के सीमा के अन्दर ही!........मै बुरी तरह हांफता हुआ वापस बेंच पर बैठ गया!......और वापस एक नजर प्लेटफोर्म की उस बोर्ड पर नजर डाली, जिस पर लिखा था ''पुनपुन''..........कुछ घंटो पहले जिस बोर्ड मै हंस कर गया था, वही अब मुझे भयानक सा दिखाई दे रहा था!.....और उसका अट्टाहस मुझे अन्दर तक झिंझोड़ रहा था!.......अब कोई चारा नहीं बचा था उस स्टेशन पर रात बिताने के अलावा!........थक हार कर मैंने अपना बैग सिरहाने रखकर राम का नाम लेकर आँखे बंद कर ली और कसम खायी की जिन्दा बचा तो जीवन में किसी का मजाक तो कभी नहीं उड़ाउंगा!.......और मै थकान की वजह से नीद की आगोश में समां गया!..........लेकिन ये रात मुझे इतनी आसानी से नहीं बक्शने वाली थी!.........रात को तकरीबन २, २.३० बजे एक अजीबो-गरीब आवाज ने मेरी रूह तक को हिला दिया!......मै एकदम घबरा कर उठ बैठा!......आवाज की ओर देखा तो एक भयानक आकृति स्टेशन के आखिरी लाइट के नीचे बैठ कर अजीबो-गरीब हरकते कर रहा था,.......और पतानहीं क्या क्या बोल रहा था!.........मेरा बचा-कूचा साहस भी जवाब देने लगा था.............अचानक लगा की ये पुनपुन ही होगा!......अब ये मुझे जिन्दा नहीं छोड़ेगा!.........मैंने एकदम से आँखें बंद की और बेंच पर बैठ कर हनुमान चालीसा पढने लगा........लेकिन दुर्भाग्य!........मुझे पूरा हनुमान चालीसा भी नहीं याद था!..........डरते- डरते मैंने आँखें खोली और पलटा, तो उम्मीद की एक किरण नजर आई!.........मैंने देखा की पुराने स्टेशन के अन्दर बत्तियां जल रही थी और पंखा भी चल रहा था!.........मतलब स्टेशन- मास्टर अन्दर होगा!.......बिना एक भी सेकंड की देरी किये मै अन्दर गया और स्टेशन मास्टर को जगा कर पूरी स्थिति से अवगत कराया!.....उन्होंने मुझे वही अन्दर सो जाने को कहा!........तब जान में जान आई! मै चुपचाप सो गया!..........
             और आँख खुली तो वो भयानक रात अपनी ड्यूटी पूरी कर वापस जा चुकी थी!.........मैने बाहर निकल कर मुह धोया,....और ढाबे पर चाय-नाश्ता किया!......ढाबे वाले ने मुझे दुबारा देखकर आश्चर्य किया, तो मैंने उसे पूरी घटना बताया!........उसे बहुत हैरत हुयी!........उसने बताया की ये वो भयानक जगह है जहाँ जाने कितने मर्डर हुए है!.............और वो पागल भी एक खुनी था जो अपना मानसिक संतुलन खोकर पागल हो चूका था!.........स्टेशन ही उसका घर था!.........उस ढाबे वाले ने मेरे साहस की प्रशंसा करते हुए कहा की कल रात यहाँ कोई भयानक घटना भी घट सकती थी......लेकिन आप तो अयोध्यावासी है.........आप पर तो राम की कृपा है!.........दरअसल पहली मुलाकात में मैंने उसे अपना परिचय दिया था!..........खैर!........वो एक भयानक रात तो बीत गई!............कुछ देर बाद मै अगली पेसेंजर में था!........एक होर्न के साथ ही ट्रेन स्टेशन छोड़ने लगी!........मैंने खिड़की से पीछे जाते हुए उस बोर्ड को फिर से देखा, जिस पर लिखा था-'पुनपुन'..........पर इस बार मै नहीं हंस पाया!!!!!!!!!
          दोस्तों!......तब से लेकर आज तक मैंने इस घटना का जिक्र पहली बार अपने ब्लॉग और फेसबुक पर किया है ........उम्मीद करता हूँ की आप इस पर भरोसा करेंगे!  

         


Saturday 11 August 2012

"मिस्टर हेल्पर " (विनोद मौर्य)

प्यारे दोस्तों!......

कई बार जिन्दगी में हम कुछ ऐसा भी कर जाते है, जिससे हमें खुद पर नाज होने लगता है. जिन्दगी का वह लम्हा हमारे लिए यादगार बन जाता है.......ऐसा ही एक यादगार लम्हा मेरी जिन्दगी का आपके साथ बाँट रहा हूँ.......

बात सन २००६ की है, जब मै ब्लूमिंग चिल्ड्रेन में पढता था. मै और मेरे सारे दोस्त, जिसमे से काफी लोग फसबूक पर है भी, सभी १२वी के बोर्ड एक्साम की तैयारी में लगे थे.. हमारी छु
ट्टी शाम को लगभग ३.३० बजे होती थी....हमारे स्कूल के तकरीबन ५० मीटर आगे महिलामहाविद्यालय था और उसके भी छुट्टी का समय लगभग वही था. यानि की उस आधे घंटे के दौरान पूरे हाइवे पर अच्छा-खासा भीड़ हो जाता था. सारे स्टुडेंट्स मस्ती- मजाक करते अपने- अपने घर चले जाते थे.
        हर रोज की तरह उस दिन भी छुट्टी हुई और हम मस्तियाँ करते हुए घर की तरफ चल पड़े. मेरे कुछ दोस्तों का झुण्ड हमेशा एक साथ ही चलता था. उस दिन जब हम महिलामहाविद्यालय से थोडा आगे बढे तो हमने देखा की महिला की एक लड़की अपनी साईकिल खड़ी किये चुपचाप लज्जावश खड़ी थी और हर सामने से गुजरने वाले स्टुडेंट्स की तरफ मदद की नजर से देख रही थी. दरअसल उस लड़की का दुपट्टा साईकिल की चैन में बुरी तरह फंस गया था. सारे स्टुडेंट्स उसकी खिंचाई करते हुए आगे बढ़ रहे थे.....थोड़ी ही देर में हम भी उसके सामने से गुजरे. मेरे बगल में मेरा दोस्त 'इरशाद' साथ में जा रहे थे. इरशाद ने 'में आई हेल्प यू, मेम?' कहते हुए उस पर कमेन्ट भी किया और हम आगे बढ़ गए.....थोडा आगे जाने पर मैंने पलटकर देखा की वो लड़की इरशाद के मजाक को सच समझ कर नम आँखों से हमारी तरफ देख रही थी. मैंने इरशाद को रोका और उसे भी अपनी गलती का एहसास हुआ. हमारे रूककर अपनी तरफ आते देख उसकी आँखों में उम्मीद की किरण चमकने लगी.
       हम उसके पास पहुचे और उसका दुपट्टा निकलने लगे. बगल से गुजरने वाले स्टुडेंट्स हम पर भी कमेंट्स करने लगे. हम अनसुना कर अपने काम में लगे रहे. १० मिनट बीत गए हमारी कोशिश बेकार हो रही थी. अब रोड भी लगभग खाली हो चुकी थी. धीरे-धीरे स्कूल के टीचर्स भी बगल से गुजरने लगे. वो हमारी तरफ देखते हुए आपस में कुछ बाते करते हुए आगे बढ़ गए.......लेकिन हमें अभी सफलता नहीं मिली. 

           फिर मैंने इरशाद से आस- पास के किसी घर से कोई औजार लाने को कहा. मै वहां रुक गया और इरशाद औजार लाने चला गया. अब धीरे- धीरे अँधेरा भी बढ़ने लगा. हम तीनो ही घबरा रहे थे. .....थोड़ी ही देर में इरशाद पास के एक घर से एक रिंच लेकर आया. इरशाद ताकत का धनी था. उसने थोड़ी ही देर में पहिया खोलकर दुपट्टा बाहर निकाल लिया. और वापस फिट कर दिया.......लेकिन अँधेरा बढ़ने लगा था. लड़की घबराने लगी थी. मैंने और इरशाद ने उसे उसके गाँव तक छोड़कर आने का फैसला किया. और आधे घंटे बाद हम ने उसे उसके गाँव तक छोड़ दिया. अँधेरा ढल चूका था..........लेकिन हम दोनों दोस्तों के चेहरे पर पूर्ण संतोष का भाव था.......जैसे कोई जंग जीतकर लौटे हो............घर पहुंचकर अच्छी- खासी डांट भी पड़ी....लेकिन हम खुश थे..............
       दोस्तों, समय बीता हम १२वी पास करके अपने -अपने कैरियर के संघर्ष में जुट गए.......इरशाद अचानक जाने कहा चला गया. उसके घर वालो को भी उसका ठीक से कोई पता नहीं था.......आज ५-६ साल बाद मेरी उससे फोन पर बात हुई तो पता चला की उसे दिमागी बीमारी है......और इसी लिए वो कई सालो से छुपता फिर रहा है.
दोस्तों, अपने जिन्दगी का एक कीमती पल निकाल कर हो सके तो इरशाद के लिए जरूर दुआ कीजियेगा!.........
आपका दोस्त- विनोद मौर्य

Thursday 9 August 2012

सिक्के की आत्मकथा

                                 सिक्के की आत्मकथा

     ''......उफ़!.....जाने कब इस कब्र से आजादी मिलेगी......जाने कब मुझे बाहर की दुनिया देखना नसीब होगा!......जाने कब मै खुली हवा में सांस ले पाउँगा!.........''
       आज से कुछ साल पहले यही मेरी करुण वेदना थी......आप सोच रहे होंगे की मै कौन हूँ, जो कब्र की बात कर रहा है.......जी!.......मै तो धातु का एक मात्र टुकड़ा था, जो जाने कितने लम्बे समय से धरती के गर्भ में बहुत नीचे दबा हुआ,.....अपनी आजादी के लिए रोता रहता था......और आज से कुछ साल पहले उपरवाले ने मेरी गुहार सुन ही ली.....एक खुदाई के दौरान मुझे जमीन से बाहर आने का अवसर मिल ही गया.........
        ओह!.......कितना खुश था मै!......दुनिया ही बदल चुकी थी.......खुला आसमान, खुली हवा, खुला वातावरण!........जीवन सफल हो गया था मानो!.......अब तो बस इस दुनिया में अपना अस्तित्व बनाने की ही देरी थी!.........फिर एक दिन कुछ लोग मुझे अन्य धातुओ और वस्तुओ के साथ लेकर चले गए!......मनुष्यों के हाथ लगने के बाद लगा की अब मेरा दुनिया पर छाने का सपना भी पूरा हो जायेगा......और हुआ भी!....लेकिन इस तरह!!!!!!!!!!!!!!
        मुझे तपते आग की भट्टी में डाल दिया गया!.......हाय!........इतनी कष्टदायक जलन!.......क्या मनुष्य इतने जालिम होते है!.......शायद हाँ!....क्योकि काफी समय तक उस आग में रखने के मुझे गला दिया गया.....और इतने में भी उनका पेट नहीं भरा तो मुझे एक गोल छोटे सांचे में डालकर बंद कर दिया गया!........पता नहीं कब तक मै छटपटाता रहा!.......और अंततः जब निकाला गया तो मै एक सरकारी सांड की तरह दगा हुआ सरकारी मुद्रा बन गया...........चलो!...कम से कम एक सुन्दर रूप तो मिला. अब मेरा भी एक अस्तित्व बन चूका था. मै हर मनुष्य का चहेता बन गया था. मै इश्वर को दुहाई देने लगा!........और अब शुरू हुआ मेरा भारत-भ्रमण!
       सबसे पहले मुझे एक बैंक के लोकर में काफी दिनों तक रखा गया.....वहा मेरी असंख्य बिरादरी मौजूद थी..इसलिए समय आसानी से गुजर गया.एक दिन बैंक के एक कर्मचारी के जरिये एक किसान के हाथो में पहुंचा. किसान कुछ दिनों तक मुझे अपनी धोती में गाँठ बाँध कर रखे हुए था..फिर एक बच्चे से मै एक दुकानदार के पास गया. दुकानदार से एक ग्राहक, ग्राहक से एक मोची, मोची से एक चायवाला, चायवाला से एक ठेलेवाला, ठेलेवाले से एक बच्चे, बच्चे से एक बुद्धे, बुद्धे से एक हलवाई, हलवाई से एक पुजारी, पुजारी से प्रभु के चरणों में पहुचने तक जाने  कितना समय निकल गया!.......सफ़र अभी ख़त्म नहीं हुआ!......पुजारी ने कई दिनों तक मुझे अपनी जेब में एक नोट के साथ रखा हुआ था.......नोट से मेरी अच्छी दोस्ती हो गयी....उसने बताया की उसका महत्त्व मुझसे ज्यादा है.....और उसे जलाकर या गलाकर नहीं बनाया गया था..हम दोनों खुश थे.
            फिर एक दिन मै एक दुकान, दुकान से एक व्यापारी, व्यापारी से एक सेठ, सेठ से एक मजदूर, मजदूर से एक दारुवाले, और दारुवाले के हाथ से एक शराबी के हाथ जा पहुंचा.......उफ़!.....उस गंदे शराबी ने मुझे जाने कितनी बार चूमा!......फिर एक दिन एक दुकान और दुकान से ग्राहक और ऐसे जाने कितने जेबों में स्थानांतरित  होता रहा........अजी!....मैंने तो लोगो को मेरे लिए लड़ते- झगड़ते यहाँ तक की कत्ल करते हुए भी देखा......मेरे लिए दुनिया में बढ़ते पाप को देखकर मै सहम गया. मुझे अपने वजूद से अपराधबोध होने लगा था...........मेरा चैन-सुकून सब छीन चूका था. मै अब अपने वजूद से छुटकारा पाने के लिए बेताब हो उठा.  पर ये अब आसान नहीं था.ऐसे ही एक-दुसरे की जेबों से स्थानांतरित होते हुए एक दिन एक पर्यटक के जरिये जापान जा पंहुचा......कुछ दिनों बाद एक भूकंप में मै वापस धरती में समां गया!
       ''.......उफ़!......हे धरती माँ!......बाहर की दुनिया से तो तेरा ये गर्भ ही अच्छा है!.....अब मै चैन से सोऊंगा!.......अलविदा दुनिया!''..................

Wednesday 8 August 2012

"एक विमान" (विनोद मौर्य)


.....शायद दोपहर के १२.३० बजे का समय था. मै अपने घर के सबसे ऊपर वाले छत पर फर्श पर पीठ के बल लेटा एक रहस्यमयी उपन्यास पढ़ रहा था......अआहः .....ऐसे रहस्यमयी किताबे पढना मेरे जीवन के सबसे अच्छे पल होते है........छत के ऊपर गहरा नीला, विस्तृत आसमान, बर्फ की तरह सफ़ेद तैरते बादल और चीटियों से दिखने वाले कुछ परिंदे. .......कुछ सनसनीखेज तथ्यों को पढने के बाद उसे गहराई से समझने के लिए मै किताब सीने पर रख कर
 आसमान को निहारने लगता और दिमाग में घूम रहे उपन्यास के सारे चलचित्र मुझे आसमान में सिनेमा की तरह दिखाई देते....और मै आगे की कहानी पढने से पहले खुद ही उस रहस्य को सुलझाने की कोशिश करने लगता.....
''.........
बेटा!......नीचे आकर खाना खा लो!''........
टीवी में चल रहे मूवी या सीरियल में अचानक आये ब्रेक की तरह ये आवाज भी मुझे रोज इसी तरह डिस्टर्ब करती थी......लेकिन ये आवाज मेरी परम पूजनीय माता श्री का था,....तो जाना तो था ही.
किताब वही छोड़ कर मै नीचे खाना खाने चला गया....खाना खाते हुए भी दिमाग रहस्यों में ही उलझा था.....खाना खाते समय रहस्यों को सुलझाना मुझे खाने में अचार की तरह लगता है....और यूही मै कह देता-' आज तो मजा आ गया.'.....और माँ खुश हो जाती.....खाना खाकर मै वापस अपनी पोजीशन पर आकर परिकल्पना की दुनिया में खो गया.
मौसम भी खुला हुआ था. हलकी सी धुप ने चारो ओर की हरियाली को बहुत खुबसूरत बना दिया था....मेरे घर के थोडा आगे तकरीबन सात या आठ किलोमीटर के रेंज में एक बड़ा और खुला मैदानी भाग है,....जिसमे कई गाव वालो के खेत, एक बड़ा तालाब और कुछ बड़े सरकारी जमीन के हिस्से है.....वो पूरा हरा मैदान मेरे घर के छत से एक बेहद खूबसूरत दृश्य का निर्माण करती है.....मेरे घर आने वाला हर मेहमान इस दृश्य की तारीफ करता है........खैर!......मै तो इस सजीव दुनिया से दूर कही एक काल्पनिक दुनिया में था....पूरी तरह उलझा हुआ....
अचानक एक भीषण कान के परदे फाड़ देने वाले गडगडाहट की आवाज ने मुझे परिकल्पना की दुनिया से हकीकत के धरातल पर लाकर पटक दिया. दिमाग शून्य हो गया और धड़कने दो गुना तेज हो गयी.......एक अजीब सा विमान आसमान में पूरब की ओर से ...सीधा मेरे छत की ओर उड़ता हुआ आया .....एक पल को लगा की मेरा घर तो गया!.......लेकिन मेरे सिर के लगभग १० फुट ऊपर से वह विमान वापस पश्चिम की ओर ऊपर उड़ गया.......फिर वह एकदम से पलटकर गोल- गोल घुमते हुए सीधा उस बड़े मैदानी भाग में जा गिरा........और अगले ही पल ब्लास्ट हो गया........उस भयंकर आवाज ने पूरे गाव को दहशत में डाल दिया.......पूरा गाव देखते ही देखते घटनास्थल पर जमा होने लगा.......पर जो मैंने देखा था वो किसी और ने नहीं देखा था.
विमान जब मेरे छत से होकर गुजरा था तो उसमे से एक बैग मेरे छत पर आ गिरा...........मै स्तब्ध सा कुछ देर देखता रहा. कानो में अभी तक धमाके की आवाज गूँज रही थी.....मै धीरे से आगे बढ़ा और बैग खोलकर देखा तो मेरी आँखे हैरत से फ़ैल गयी ....और उससे भी ज्यादा हैरानी उस बैग के उपरी पॉकेट से मिले एक कागज से हुई, जिसमे लिखा था -'' इस बैग में एक बहुत बड़ा राज छिपा हुआ है....मेरे पास इसे बताने का वक़्त तो नहीं है पर इस राज से देश का बहुत बड़ा खतरा जुड़ा हुआ है. ........ये बैग जिसे भी मिले उससे मेरा अनुरोध है की देश का एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते किसी ऐसे इन्सान तक पंहुचा दे जो इस रहस्य को सुलझा सके और देश की रक्षा कर सके..........जय हिंद!.....''
मै पूरी तरह शोक्ड हो चूका था. दिमाग में कई तरह के सवाल घूमने लगे. एक बड़ा तूफ़ान मेरे दिमाग को पूरी तरह झिंझोड़ गया..........मैने चुपचाप बैग उठाया और अपने आलमारी में रख दिया .....और आँख बंद करके बिस्तर पर लेट गया.....और नींद के आगोश में चला गया..........
........
जब मेरी आँख खुली तो मै चौंक गया........जी हाँ!......मै सूरत में था और सुबह के ५ बज रहे थे........तो फिर गाँव ?....ओह !....तो मैंने एक सपना देखा!...उफ़ , अजीबो-गरीब सपना!..........
दोस्तों!......कहते है की सुबह उठते ही लोग सपने भूल जाते है.....पर मेरे साथ ऐसा नहीं होता!........मुझे सपने याद रहते है!.......और ऐसे सपने मुझे अक्सर ही आते रहते है!.........शायद इन्ही सपनों से मुझे इस तरह की कहानिया लिखने की प्रेरणा मिलती है या फिर मेरे राईटर होने की वजह से मुझे ऐसे सपने आते है!
खैर!.....मैंने ठान लिया है की मै इस अधूरे सपने को पूरा करूंगा!.........एक रहस्यमयी कहानी के रूप में!...........आप बताइए आपको कैसा लगा?..............

Tuesday 7 August 2012

"मैंने भी ब्लॉग बना ही लिया" (विनोद मौर्य)

मित्रों!
मेरे भाई प्रमोद के गुरूजी
Photo: मैं अन्ना नहीं हूँ!
क्योंकि उन जैसा बनने में बहुत समय लगेगा मुझे!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ने मेरा ब्लॉग भी बना दिया है।
आज मैं पहली पोस्ट के रूप में
अपने कुछ चित्र इसमें लगा रहा हूँ।
मैं
गरवी फिल्म्स में थीम राइटर हूँ!